उपनिषद (श्री अतवारा जी के ब्लॉगपोस्ट से साभार)

हमारा मस्तिष्क और मन वाह्य वस्तुओं को ही पहचान पाता है, इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाने वाला अनुभव ही मस्तिष्क में दर्ज होता है और वही हम समझ पाते है। उपनिषद, स्वयं की चेतना की बात करतें हैं इसलिए उपनिषदों को समझ पाना कठिन है। सबसे प्रथम और प्राचीन उपनिषद, ईशोपनिषद है। आइये इसी उपनिषद पर हम बात करते हैं-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
    पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
      ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
इसका अर्थ है कि वह परम चेतना अनन्त और पूर्ण है। यह प्रकृति भी अनन्त और पूर्ण है। अनन्त परमचेतना से ही अनन्त प्रकृति या ब्रम्हांड का जन्म होता है फिर भी अनन्त और पूर्ण परमचेतना पूर्ण रहता है। अर्थात एक अनन्त से दूसरे अनन्त का प्रादुर्भाव होता है और दोनो अनन्त पूर्ण होते है।
ॐ ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥१
अर्थात यह पूरी सृष्टि परमचेतना द्वारा व्याप्त है, चाहे वो चलायमान जगत हो या स्थिर, अतः हे मनुष्य इस प्रकृति का आन्दंपूर्वक उपभोग करो, परन्तु इसे अपनी सम्पत्ति मत समझो।
       हम प्रायः यह कहते है की ईश्वर ने संसार का निर्माण किया, क्या ईश्वर ने कहीं से पदार्थ उठाया और प्रकृति तथा जीवों का निर्माण कर दिया। अब प्रश्न उठता है की वह पदार्थ आया कहाँ से, क्या वो पहले से था, यदि पहले से था तो उसे किसने बनाया था? अगर हम ईश्वर को इस रूप में देखें तो उसके अनन्त होने का बोध खत्म हो जाता है इसलिए हम पदार्थ और ईश्वर को अलग अलग रूप में नहीं ले सकते। अब अगर ईश्वर ने इस प्रकृति को अपने हाथों से नहीं बनाया तो ये बना कैसे... ? 
       पत्थर को जब हम देखते हैं तो वह ठोस और मजबूत दिखाई देता है, लेकिन सूक्ष्मदर्शी में वह अत्यंत छोटे परमाणु और उससे भी छोटा और फिर उर्जा में परिवर्तित दिखेगा, अर्थात वह बड़ा और मजबूत पत्थर भी और कुछ नहीं सिर्फ उर्जा का ही प्रकार है, फर्क सिर्फ हमारे परसेप्शन या ग्रहणबोधिता का है, जब हम स्थूल रूप में देखते है तो वह पत्थर है और जब सूक्ष्म रूप में देखते है तब उर्जा है, स्थूल पदार्थ किसी एक स्थिर स्थान पर हो सकता है, परन्तु चेतना तो सर्वव्यापी और सर्वत्र है।
       कहते है कि हमे भौतिक वस्तु या सम्पति से खुशी मिलती है, परंतु उपनिषद कहते है की ये खुशी का कारण नहीं हो सकते, क्योंकि हम किसी भी भौतिक वस्तु को छु सकते है, देख सकते और महसूस कर सकते है लेकिन उसे आविष्ट नहीं कर सकते। क्या हम जमीन और मकान को अपने अंदर समा सकते है? नहीं। उपनिषद कहते है 'तेन त्यक्तेन- त्याग दो,  भुंजीथा–आनंद लो', त्यागमयी भोग और भोगमयी त्याग।
       अगर कोई कल कहे की आप मेरी सम्पत्ति हो, तब क्या आप उसके लिए तैयार होंगे ? नहीं। क्योंकि हर वस्तु स्वयं चेतन है कोई एक चेतना किसी दूसरी चेतना की सम्पत्ति नहीं, फिर हम कैसे किसी को अपनी संपत्ति बना सकते है। ईश्वर सम्पूर्ण जगत में समाहित है, प्रसन्नता की प्राप्ति ईश्वर की रचना से तारतम्य बैठाने में है न की उसे अधिकृत करने की इच्छा में, क्योंकि यह पूरी होना संभव नहीं है।
       दरअसल वाह्य वस्तुओं का संसार सिर्फ इन्द्रियों का परसेप्शन है न कि आत्मा से जुड़ाव। आत्मा या चेतना का एहसास ही खुशियों को बढ़ाता है, क्योंकि सभी कुछ परमचेतना का ही आविर्भाव है, इसलिए जितना अधिक हमारी चेतना में परमाचेतना का प्रादुर्भाव होगा उतना ही अधिक प्रसन्नता का अनुभव भी। हमारी चेतना या अस्तित्व एक बड़े अस्तित्व का हिस्सा भर है। हमारा कोई  निश्वार्थ किया हुआ काम भी हमारे ही काम आता है क्योंकि वह एक बृहद चेतना के लिए किया गया होता है। यह संसार एक ही परमचेतना की रचना होने की वजह से एक-दूसरे से जुड़े है।